Sunday 9 February 2014

देश फिर हुआ शर्मसार!

देश फिर हुआ शर्मसार!
भारत फिर शर्मसार हुआ। रूस के सोच्चि में शीतकालीन
ओलिम्पिक खेलों के भव्य उदï्घाटन समारोह में जब
भारतीय खिलाड़ी शिवा केशवन और दो अन्य
खिलाडिय़ों को बिना तिरंगे के भाग लेते देखा तो मन
को बÞत ठेस लगी। ओलिम्पिक में पहली बार ऐसा हुआ है
कि भारतीय खिलाडिय़ों के हाथ में तिरंगा नहीं था।
उन्होंने ओलिम्पिक के झंडे तले ही मार्चपास्ट में भाग
लिया। बगैर तिरंगे के पूरी दुनिया के खिलाडिय़ों के
सामने उपस्थित होने का दु:ख कोई खिलाड़ी ही समझ
सकता है। वह स्वतंत्र एथलीट के तौर पर इन खेलों में
भाग ले रहे हैं। ऐसी शर्मनाक स्थिति के लिए अगर कोई
जिम्मेदार हैं तो वह हमारे राजनीतिज्ञ हैं।
भारतीय ओलिम्पिक संघ में बैठे कुछ लोगों के कारण
ही हमें यह दिन देखना पड़ा है। इन लोगों को देश
की परवाह ही कहां है, अगर होती तो यह
स्थिति नहीं होती। यह स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय
ओलिम्पिक समिति द्वारा भारतीय ओलिम्पिक संघ
की सदस्यता निलम्बित करने से पैदा हुई है। भारतीय
ओलिम्पिक संघ से जड़े सदस्य और तमाम खेल संघों के
पदाधिकारी चाहते तो यह स्थिति पहले ही सुलझाई
जा सकती थी। सितम्बर 2012 में भारतीय ओलिम्पिक
संघ के चुनाव में कुछ उम्मीदवारों के हिस्सा लेने पर
आपत्ति जताते हुए उनकी जीत के बाद आईओसी ने
भारतीय संघ को प्रतिबंधित कर दिया था। आईओसी के
कड़े रुख के बाद 9 फरवरी को फिर से आईओए के चुनाव
होने जा रहे हैं। इस मामले में सभी ने
उदासीनता बरती। वहीं भारतीय ओलिम्पिक संघ के
पूर्व महासचिव रणधीर सिंह ने अन्तर्राष्टï्रीय
ओलिम्पिक समिति से जुड़े होने के कारण अपने देश
का पक्ष स्पष्टï करने का कोई प्रयास ही नहीं किया।
आज के राजनेताओं ने स्वाभिमान को धूल-धूसरित
ही किया है। राष्टï्र के प्रति सम्मान की भावना न
होना ही स्वाभिमान को गिराता है। काश! हमने
राष्टï्र ध्वज के गौरव और गरिमा को समझा होता।
आज के नेताओं को पद और प्रशंसा चाहिए। न जाने वे
किस दुनिया में खो गए हैं। कवि बालकृष्ण बैरागी की ये
पंक्तियां मेरे मन-मस्तिष्क में घूमती हैं, जब वह इस देश
के नेता से यह कहते रहे—
सावधान! जननायक सावधान!
ये स्तुति का सांप तुम्हें डस न ले।
बचो इन बढ़ी हुई बांहों से
धृतराष्ट का मोहपाश कहीं तुम्हें कस न ले
बचो अर्चना से, फूलमाला से
अंधी अनुशंसा की हाला से
बचो वेदना की वंचना से, आत्मशक्ति से
बचो आत्म शोषण से, आत्मा की क्षति से।
आज तो बात ही उल्टी हो गई, नेता बचे क्या? वह
तो आत्म प्रवंचना में ही जी रहे हैं। उन्होंने देश
की मर्यादा को ही धूल चटा दी। दागियों,
भ्रष्टाचारियों ने खेल संघों पर कब्जा करने की कोशिश
की और राष्टï्र की अस्मिता को ही दाव पर
लगा दिया। बिहार की राजधानी पटना में सचिवालय
के सामने कुछ प्रतिमाएं स्थापित हैं। कभी मैंने उन
प्रतिमाओं को देखा था। वह कुछ ऐसे
छात्रों की प्रतिमाएं थीं, जिन्होंने 1947 से पूर्व
राष्टï्र की आजादी के लिए यूनियन जैक की जगह
राष्टï्र ध्वज लहराने के लिए सीने पर गोलियां खाई
थीं। वहां सबके नाम लिखे हुए हैं। सबसे आगे एक छात्र के
हाथ में ध्वज है। वह गोलियां खाकर
गिरता तो दूसरा उसे थाम लेता है। यह
सिलसिला अनवरत चलता है, जब तक वे 8 या 9 छात्र
शहीद नहीं हो जाते। यही भाव उन प्रतिमाओं में
जीवंत है कि जान दे दी, राष्टï्र ध्वज नहीं गिरने
दिया। शहीद किसे कहते हैं, आप उस दृश्य
की कल्पना करें तो आप अपने आंसुओं का वेग नहीं रोक
पाएंगे। इस तिरंगे की खातिर हमारे कितने
ही जवानों ने शहादतें दीं। आज हम किस चौखट पर आंसू
बहाएं क्योंकि हमारे नेताओं को तिरंगे
की ओजस्विता का बोध ही नहीं है।

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